निकले थे घर से एक दिन
सपनो का एक आशियाँ लेकर ...
अब वही सपनो को ढूँढते है
आँखों के चिराग लेकर ...
लढ़ रहे थे हम दुनिया से
पर कभी थके न थे ...
पर अब थक गए है हम
और हार गए है हम खुद से लढते लढते ...
भटक रहे है मारे मारे किसी रौशनी की तलाश में
कोई तो हाथ थाम लो ...और रोक लो हमे ...
कही बुझ न जाए ये दिया सुबह के इन्तेजार में ...
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