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Sunday, August 12, 2012

निकले थे घर से एक दिन

सपनो का एक आशियाँ लेकर ...

अब वही सपनो को ढूँढते है

आँखों के चिराग लेकर ...

लढ़ रहे थे हम दुनिया से

पर कभी थके न थे ...

पर अब थक गए है हम

और हार गए है हम खुद से लढते लढते ...

भटक रहे है मारे मारे किसी रौशनी की तलाश में

कोई तो हाथ थाम लो ...और रोक लो हमे ...

कही बुझ न जाए ये दिया सुबह के इन्तेजार में ...

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